बस, भर पेट संवेदना या सबक भी?
:- मम्मी से जो सबसे पहली डाँट पड़ी वो एक फूल तोड़ने के लिए पड़ी थी। बालपन में अक्सर ही हम करते हैं ना, कोई सुंदर फूल दिखा तो उत्सुकता वश तोड़ लिया। फूल पर बैठी कोई तितली दिखी तो उसे पकड़ लिया। फिर उससे खेलने लगे। जुगनू को डब्बे में बंद कर लिया। चलते-फिरते कूदते-फाँदते कहीं से गुज़रते हुए किसी पेड़ से पत्ते तोड़ लिए। चींटी को फूँक मारकर ऊपर से नीचे फेंकना और फिर देखना कि मरी या नहीं, या उसे हाथ रखकर उसका रास्ता रोक लेना। सड़क चलते किसी जानवर को सताकर, पत्थर मारकर या उसकी पूँछ ही खींचकर ठिठौली करने जैसे कई काम बच्चे करते हैं।
मैंने जब भी किए मम्मी ने बहुत डाँटा, कई बार चाँटा भी मारा। हर बार यही कहतीं, “किसी जीव को सताना हिंसा है। उसे दुःख देना हिंसा है। हम तो #अहिंसावादी हैं। तुम्हें पाप लगेगा।”
पाप का भय कह लो या मम्मी की डाँट का डर या फिर मम्मी का यह कहना कि “उनकी जगह ख़ुद को रखकर देखो, तब जानोगे कि कैसा लगता है”, तब मेरे बालमन में एक इमेजिनेशन बनती जिसमें मैं देखता कि फूल रो रहा है। इन सबसे मन में वो मानवीयता आई कि आज ख़ुद किसी भी जीव को उद्देश्य पूर्वक मारने की बात मन में नहीं सोच भी नहीं सकता।
दिन-ब-दिन क्रूरतम घटनाओं का सामने आना और हमें उनका आदी बनाते जाना, ऐसे अमानवीय अपराधों पर भी मनुष्य का विचलित ना होना और प्रकृति के प्रति समर्पण ना होना ही यह समझाने के लिए काफ़ी है कि हम उन संस्कारों से अछूते होते जा रहे हैं जिनमें हमें मानवता का पाठ पढ़ाया जाता है। जिनमें जीव को जीव समझना सिखाया जाता है। जिनमें सिखाया जाता था कि अपने स्वार्थ के किए किसी को तकलीफ़ नहीं देना।
इसी स्वार्थ का नतीजा यह है आज हमारे सामने कॉन्क्रीट के जंगल हैं। खिड़की से देखो तो इमारतें नज़र आती हैं पेड़ नहीं। अब सड़कों पर हिरण फुदकते नहीं दिखते। गौरैया विलुप्त होने लगी हैं। टाइगर्स को बचाने के लिए आंदोलन करने पड़ते हैं। समंदर के कोरल्स अपना रंग खो रहे हैं। मछलियाँ अब तटों पर नहीं आतीं। पानी को साफ़ करने के लिए, हवा को साफ़ करने के लिए मशीन लगानी पड़ती हैं। अब शास्त्रों में लिखी वह बात भी झूठ नहीं लगती कि, “एक ऐसा काल भी आएगा जब इंसान इंसान को ही काटकर खाएगा”।
प्रकृति को खत्म करने के बाद इंसान के पास बचेगा ही क्या सिवाय एक दूसरे को खाने के?
मनुष्य अपने निकृष्ट रूप में सामने आ रहा है। संस्कारों का मख़ौल उड़ाना अब बुद्धिमत्ता की, आज के ज़माने की नई पहचान है। लेकिन हम ये भूल गए कि यही वे संस्कार थे जिसने इतने वर्षों तक मनुष्य और प्रकृति का तालमेल बनाकर रखा। और अब देखिए, मात्र 100 वर्षों में हम कहाँ से कहाँ पहुँच गए। इन वर्षों में जंगलों के कटने का, जानवरों की प्रजातियाँ विलुप्त होने का, जलहवामिट्टी के प्रदूषित होने के आँकड़ें देखेंगे तो शर्म आएगी ख़ुद पर।
घरों में बचपन में दिए गए संस्कार ही किसी मनुष्य की प्रवर्ति तय करते हैं। यह दुनिया सभी की है। किसी भी मूक प्राणी को तकलीफ़ नहीं पहुंचाना चाहिए, बच्चों को यदि नहीं सिखाएँगे तो बड़े होकर वे वही करेंगे जो आज उस हथिनी के साथ हुआ है।
उसे तकलीफ़ पहुँचाने वालों में यदि इतने संस्कार होते कि यह पृथवी सिर्फ मनुष्यों की नहीं, वह भी जीव है, उसे भी दर्द होता है, यदि ऐसा ही हमारे साथ हो तो कैसा लगेगा, या पाप का ही भय होता तो शायद गर्भ में पलने वाला वह निर्दोष जीव अपनी माँ के साथ मर जाने के लिए मजबूर नहीं होता।
“पाप-वाप कुछ नहीं होता” जैसी बातें इस विज्ञान के युग में हमारा एडवांस होना तो दिखाती हैं लेकिन अब लगता है कि पाप का भय ही संभवतः वह कुंजी रही होगी जिससे अमानवीय घटनाओं को समाज रोक पाता होगा।
आज एक गर्भवती हथिनी के मरने से हम विचलित हैं। कल को यह दुर्घटना भी पुरानी हो जाएगी। हम सब भूलकर फिर अपने जीवन में लौट आएँगे। किंतु यदि अब भी यह घटना हमें जीवों के प्रति दया और प्रकृति के लिए लड़ना, उसे बचाना, अपने बच्चों को जीवों से प्रेम करने के संस्कार देना, या यह दुनिया सबकी है नहीं सिखा पाती तो आज की हमारी सारी संवेदनाएँ झूठा हैं। हमारा सारा रुदन बेकार है। हमारी सारी बातें खोखली हैं। हमने उस हथिनी की मृत्यु से कोई सबक नहीं लिया ना ही उसे सच्ची श्रद्धांजलि ही दे पाए।
जीव हिंसा, सबसे बड़ा पाप है। यह समझना ही संभवतः हमें प्रकृति और मानवता के कुछ क़रीब ले जा पाएगा।
रजनीश कुमार शुक्ला
अधिवक्ता
जौनपुर (उ0प्र0)
👉🏻अब तो सबक लें
👉🏻सब ख़त्म हो जाएगा
👉🏻प्रकृति से प्रेम करिए।