Gorakhpur

शाशन व प्रशासन :  हम कसम खाते है कि.. .

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पर क्या ये कसम ट्रेनिंग पूरी होने के उपरांत, पद भार ग्रहण करते समय तक याद रहता है पुलिस प्रशासन को ?

गोरखपुर(विनय तिवारी)।भारतीय संविधान में पुलिस प्रशासन को सबसे बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई जनता और आम जनमानस की सुरक्षा करना।देखा जाए तो सत्य ही ये सबसे जटिल कार्य है ,पर इसे पूर्ण ईमानदारी से किया जाए तो।अन्यथा हो कसम अधिकारी ,प्रशासन वर्ग एवं राजनैतिक वर्ग अपने पद भर को ग्रहण करते समय खाता है क्या वह खुद कह सकते की पूरी ईमानदारी से उनका निर्वहन वो करते है।कहा जाए 75%से ऊपर लोग इन कसमों ,कर्तव्यों को निकलते समय ही भूल जाते।परंतु इनमें सबसे महत्वपूर्ण होता पुलिस प्रशासन की जिम्मेदारी खाने को तो 8 अथवा 12 घंटे की ड्यूटी का शिफ्ट है ,परंतु देखा जाए तो 24 घंटे भी ड्यूटी इनको निभानी पड़ती।अब सवाल यह उठता है कि जब देश ,जनता सेवा के लिए यह समय कितना उनके हित में कारगर होता यह तो वर्तमान समय में सभी देख रहे।पुलिस का मूल कर्तव्य कानून व्यवस्था व लोक व्यवस्था को स्थापित रखना तथा अपराध नियंत्रण व निवारण तथा जनता से प्राप्त शिकायतों का निस्तारण करना है। समाज के समस्त वर्गो में सद्भाव कायम रखने हेतु आवश्यक प्रबन्ध करना, महत्वपूर्ण व्यक्तियों व संस्थानों की सुरक्षा करना तथा समस्त व्यक्तियों के जान व माल की सुरक्षा करना है।पर आज न्याय के लिए गरीब जनता थानों पर जाने से क्यों घबराती है।
क्यों निराश होकर उनको न्याय मिलने की जगह जलील करके बाहर का रास्ता दिखाया जाता। क्यों उनके साथ पीड़ितों वाली सहानुभूति नहीं मिलती क्यों उनको अभद्र शब्दो का प्रयोग सुनना पड़ता।
मै मानता हु कि कुछ केस वास्तविक रूप से जटिल होते जिनमें आरोपी सत्य बोल रहा अथवा झूठ, ये जानना मुश्किल होता पर असंभव नहीं क्युकी पुलिस के तंत्र इतने लंबे होते की उनको आज नहीं कल सत्यता पता चल ही जाता। फिर भी तमाम केसो में देखने को मिलता यदि एक पक्ष प्रभावशाली है और दूसरा पक्ष कमजोर तो प्रथम पक्ष का यदि वो नहीं सुनता तो उलटा उसे थानों में अभद्र भाषाओं के साथ मुकदमों को भी झेलना पड़ता जो बिल्कुल असत्य होती।और गरीबों के हितैशी वही पुलिस रक्षक की जगह भक्षक बन जाती।उत्तर प्रदेश डीजीपी ,प्रदेश पुलिस के आला अधिकारी कहते की थानों में आए हुए फरियादियों के साथ विनम्रता से पेश आए उनका सम्मान करे और उनके मामलों को सुनते हुए, सत्य की जांच करते हुए उचित न्याय दिलाए।पर आज न्याय है कहा ? क्या थानों के उन चारदीवारों के बीच बंद हो जाता न्याय की सीमा ,क्या कानून केवल बाहुबलियों, सत्ताधारियों के लिए एक कठपुतली मात्र बनकर रह गया।क्यों पुलिस विभाग को हेय दृष्टि से देखती जनता क्यों उनके लिए जनता के मन में सद्भावना एवं सम्मान नहीं होता।सीमा पर एक सैनिक शहीद होता तो देश के डेढ़ अरब जनता की आंखों में आंसू आ जाते और लोग कहते की धन्य है वो मां जिसने ऐसे “सपूत” को पैदा किया।पर जब एक पुलिस कर्मी का देहांत होता तो यही जनता जनमानस कहता कि अच्छा हुआ एक धरती से एक बोझ कम हुआ।

आखिर क्यों ?

इसका कारण है अवैध वसूली,न्याय की जगह शोषण ,बतमीजी से पेश आते थानों के पुलिस कर्मी। कोई गरीब न्याय के लिए जाता तो वह मानकर चलता की मामला छोटा है तो तीन से चार हजार में सलट जायेगा। थोड़ा बड़ा हुआ तो नीचे से ऊपर साहब तक दस से पंद्रह हजार। कुल मिलाकर जैसा मामला वैसा दाम।कुछ थानों पर लिखा होता “दलालों से सावधान” पर वो ये बताए कि किन दलालों से सावधान जो खुद वर्दी में थानों पर कोने ,कोने में खड़े होकर मामलो के हिसाब से डील करते दिखते और पाए जाते वर्दी धारी जिसका प्रमाण कितने हुए स्टींग ऑपरेशन जिनके चिल्ला चिल्ला कर इनके गुनाह साफ दिखते और बहुत बड़ी कार्यवाही होती इन पर तो लाइन हाजिर या सस्पेंड (जब तक मामला न्यायालय में चलता) और फिर कुछ महीनों साल बाद मिल जाती इनको किसी अन्य जिले में पोस्टिंग तो इनमें वो डर कहा जो इनमें डर पैदा करे।

अगर कोई काम ,न्याय भी सही तरीके से करना चाहता तो ऊपरी लोग उसे अपने हाव भाव में शामिल कर लेते।

पर आज भी प्रश्न ये बना हुआ कि कब ये पुलिस तंत्र पद भर ग्रहण करते समय खाए गए उन कसमों को समझेगा कब खत्म होगा ये “क्लंक” कब जगेगा उनका जमीर,कब आयेगी उनमें मानवों के प्रति मानवता। कब उच्च अधिकारी इन विषयों पर ध्यान देंगे और कब साफ सुथरा होगा पुलिस तंत्र जहां एक गरीब बड़े फख्र से जाकर न्याय की उम्मीद कर सके।

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