सुल्तानपुर के हमसफर ‘राजेश्वर’

सुल्तानपुर। जिले की शख्सियत चौरासी साल के राजेश्वर सिंह अब नहीं रहे ! इतनी उमर के बाद भी निश्चल हंसी के साथ हमेशा जीवंत….उनकी खासियत थी। वे क्या-क्या नहीं थे !!! अधिवक्ता, पत्रकार, इतिहासकार, कवि, उपन्यासकार और कथाकार.. सभी रूपों में उन्होंने जिंदगी को जिया,गुना और धुना। गांव की माटी से निकले और शोहरत की बुलंदियां हासिल कीं। अटपटा नाम वाला डीहढग्गूपुर उनका गांव था। शुरुआती पढ़ाई गांव-गंवई माहौल में..और फिर उच्च शिक्षा के लिए कोलकाता विश्वविद्यालय का सफर। लौटे तो एमए-एलएलबी कर अपनी जमीन पर ‘जनवाद’ का मुलम्मा ओढ़कर। पर माटी और संस्कृति-परंपरा-अतीत से लगाव बरकरार रखा।६१-६२ में सुसंस्कृत सिंह ने मेरिट की वकालत और धाकड़ पत्रकारिता दोनों साथ शुरू की। कल के फैजाबाद और आज की अयोध्या से प्रकाशित पूर्वांचल के मशहूर अखबार ‘जनमोर्चा’ के साथ उनका नाम ताजिंदगी सुल्तानपुर में पर्याय बनकर चिपका रहा..आखिरी दो-एक वर्षों को छोड़कर। जिंदगी को अलहदा जीने के वे आदी थे। रोजाना ५ बजे कचहरी से निकलने के बाद वे आक्रामक शैली के पत्रकार नजर आते थे।..वे अफसरों के आगे कोर्निश बजाने वाले पत्रकार नहीं थे। पेशे के प्रति ईमानदार और धाकड़ थे। साफगोई और तीखे अंदाज की उनकी खबरें नाकारा फरेबी नौकरशाहों को चुभती बहुत थीं। न्याय करती थीं। यही वजह है कि पत्रकारिता में वे हमेशा ‘आइडियल’ बने रहे। वकालत और पत्रकारिता के बाद जो वक़्त बचा उसे राजेश्वर सिंह ने साहित्य को समर्पित कर दिया। अतीत से लगाव रखने वाले खोजी प्रवृत्ति के सुल्तानपुर के लोगों को सुल्तानपुर का इतिहास-भूगोल जितना सिलसिलेवार तथ्यात्मक तरीके से उन्होंने बताया-समझाया, पहले कोई बता नहीं पाया। उनकी किताब ‘सुल्तानपुर इतिहास की झलक’ अब स्थानीय बासिंदों के गर्व करने की वजह है। इतिहासकार के रूप में मशहूर राजेश्वर सिंह ‘कवि’ हृदय भी थे। स्थापित साहित्यिक-सामाजिक पत्र-पत्रिकाओं में वे खूब छपे। मानवीय संबंध और समाज की विद्रूपताओं पर कवि सम्मेलनों में उनकी कविताई अमिट छाप छोड़ती रही। उनका काव्य संग्रह ‘काल की पर्त पर’ संग्रहणीय है। उपन्यासकार के रूप में बेधड़क अंदाज में शिक्षा माफ़ियाओं के कॉलेजों में वर्चस्व और तवायफों की मुश्किलों को ‘योगानंद’ और ‘पथरीला पथ’ लिखकर उघारा। जिसने उन्हें शोहरत दिलाई काफी चर्चा में रहे। सामाजिक जीवन मे सक्रियता का आलम ये कि सत्तर के दशक में जब राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित हो चुके तत्कालीन केंद्रीय मंत्री बाबू केदारनाथ सिंह ने कमला नेहरू मेमोरियल ट्रस्ट की स्थापना की, तो सचिव का दारोमदार इन्हें ही सौंपा। वे कमला नेहरू संस्थान के संस्थापक प्रबंधक भी रहे।
….सौभाग्यशाली हूं मुझे उनका सदैव स्नेह मिला। २१वीं सदी की शुरुआत थी जब मैंने पत्रकारिता शुरू की। वे पूरी तरह सक्रिय थे तब। मैं नया था। मैं ही नहीं सभी युवा साथी उन्हें ‘बाबूजी’ ही कहते थे। विशेष संवाददाता सम्मेलनों में आयोजक के बड़े अनुरोध पर ही वे आते भी थे। रूबरू होते ही पारिवारिक पृष्ठभूमि के साथ मेरा सभी से परिचय कराने का उनका..वो अपनापन से भरा अंदाज, हमेशा याद आएगा। तमाम ज्ञान और सलीका उनसे ही तो सीखा है।..भगवान उन्हें सद्गति प्रदान करें।