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विश्वविख्यात हैं रुद्रपुर के बाबा दुधेश्वर नाथ का शिवलिंग

 

अबूझ पहेली है शिवलिंग के आधार का पता

संतोष शाह

रुद्रपुर (देवरिया)। भारत में वैसे तो अनेकानेक मंदिर शिवालय हैं, परन्तु उत्तरप्रदेश के देवरिया जिले के रुद्रपुर में 11वीं सदी में अष्टकोण में बने प्रसिद्ध दुग्धेश्वरनाथ मंदिर में स्थापित शिवलिंग अपनी अनूठी विशेषता के लिए विश्वविख्यात है। इस शिवलिंग का आधार कहां तक है? इसका आज तक पता नहीं चल पाया। मान्यता है कि मंदिर में स्थित शिवलिंग की लम्बाई पाताल तक है। ग्यारहवीं सदी में इस मंदिर के वर्तमान स्वरुप का निर्माण तत्कालीन रुद्रपुर नरेश हरी सिंह ने करवाया था। जिनका संभवत: सत्तासी कोस में साम्राज्य स्थापित था। लोगो के मुताबिक यह मंदिर ईसा पूर्व के ही समय से यहां है। पुरातत्व विभाग के पटना कार्यालय में भी नाथ बाबा के नाम से प्रसिद्ध इस मंदिर के संबंध में उल्लेख मिलता है। यह काशी के ही क्षेत्र में आता है और शिव पुराण में इसका वर्णन है। महाकालेश्वर उज्जैन की भांति इसे पौराणिक महत्ता प्रदान की गई है। यह उनका उपलिंग है। सबसे बड़ी बात है कि यहां लिंग को किसी मनुष्य ने नहीं बनाया, बल्कि यह स्वयं धरती से निकला है।स्कन्दपुराण में भी इस मंदिर का वर्णन है तथा इसे द्वाद्वश लिंग की भांति महत्वपूर्ण बताया गया है। त्रयम्बकेश्वर भगवान के बाद रुद्रपुर में बाबा भोलेनाथ का लिंग धरातल से करीब 15 फीट अंदर है। बताया जाता है कि इस मंदिर में स्थित शिव लिंग की लम्बाई पाताल तक है। मंदिर के निर्माण में प्रयुक्त ईंट बौद्धकाल के बताए जाते हैं।
जिला मुख्यालय से करीब 22 किमी.पश्चिम दिशा में स्थित दूसरी काशी के नाम से प्रसिद्ध अष्टकोण में बना बाबा दुग्धेश्वरनाथ का विशाल मंदिर में वैसे तो पूरे साल भक्त एवं श्रद्धालु आते हैं, लेकिन श्रावण मास में शिव भक्तों द्वारा सरयू नदी से कांवड़ से जल चढ़ाने की पुरातन परम्परा आज भी विद्यमान है पर इस कोरोना वायरस काल मे कावड यात्रा प्रतिबन्ध होने से भक्तों में निराशा है। महाशिवरात्रि के दिन एवं श्रावण मास में यहां भारी भीड़ होती रहती है।इस दौरान पूरा मंदिर परिसर हर-हर महादेव,ॐ नम: शिवाय और बाबा भोलेनाथ की जयकारों से गुंजायमान रहता है। जनश्रुतियों के अनुसार, मंदिर बनने से पहले यहां घना जंगल था।बताते है कि उस समय दिन में गाय भैंस चराने के लिए कुछ लोग आया करते थे। आज जहां शिवलिंग है वहां नित्य प्रतिदिन एक गाय प्राय: आकर खड़ी हो जाती थी तथा उसके थन से अपने आप वहां दूध गिरना शुरू हो जाता था। इस बात की जानकारी धीरे-धीरे तत्कालीन रुद्रपुर नरेश के कानों तक पहुंची तो उन्होंने वहां खुदाई करवाई। खुदाई में शिवलिंग निकला। राजा ने सोचा कि इस घने जंगल से शिवलिंग को निकाल कर अपने महल के आस-पास मंदिर बनवाकर इसकी स्थापना की जाए।कहा जाता है कि जैसे-जैसे मजदूर शिवलिंग निकालने के लिए खुदाई करते जाते वैसे-वैसे शिवलिंग जमीन में धंसता चला जाता। कई दिनों तक यह सिलसिला चला। शिवलिंग तो नहीं निकला वहां एक कुआं जरूर बन गया। बाद में राजा को भगवान शंकर ने स्वप्न में वहीं पर मंदिर स्थापना करने का आदेश दिया।भगवान के आदेश के बाद राजा ने वहां धूमधाम से काशी के विद्धान पंडितों को बुलवाकर भगवान शंकर के इस लिंग की विधिवत स्थापना करवाई। जब तक वह जीवित रहे,भगवान दुग्धेश्वरनाथ की पूजा-अर्चना और श्रावण मास में मेला आयोजित करवाते थे। मंदिर में आज भी भक्तों को लिंग स्पर्श के लिए 14 सीढ़ियां नीचे उतरना पड़ता है। यहां भगवान का लिंग सदैव भक्तों के दूध और जल के चढ़ावे में डूबा रहता है। कहा जाता है कि प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन सांग ने भी जब भारत की यात्रा की थी तब वह देवरिया के रुद्रपुर में भी आए थे। उस समय मंदिर की विशालता एवं धार्मिक महत्व को देखते हुए उन्होंने चीनी भाषा में मंदिर परिसर में ही एक स्थान पर दीवार पर कुछ चीनी भाषा में टिप्पणी अंकित थी, जो आज भी अस्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर होती है। कई इतिहासकारों ने उस लिपि को पढ़ने की चेष्टा की लेकिन सफल नहीं हो पाए। मंदिर के पश्चिम में एक विशाल तालाब है जो कमल के फूलों से भरा रहता था। इसी तालाब के पास एक सुरंग थी जो काफी दूर जाकर निकलती थी पर समय के साथ यह सुरंग जीर्ण शीर्ण होकर गिर गई। सतासी नरेश और उनका काल तो इतिहास के पन्नों में अब समा चुका है,लेकिन उनका बनवाया हुआ मंदिर आज भी श्रद्धा एवं शिव भक्ति भाव का प्रतीक है।
रुद्रपुर कस्बे में आज भी सैकड़ों छोटे बड़े भगवान शिव के मंदिर एवं शिवलिंग मिल जाएंगे। पुराने मकानों एवं खण्डहरों में से छोटे शिवलिंग एवं शिव मूर्तियों का मिलना इस बात का प्रमाण है कि रुद्रपुर में पुरातन काल में घर-घर भगवान शिव की पूजा एवं आराधना होती थी, इसलिए रुद्रपुर को दूसरी काशी का नाम दिया गया है।

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