यादों में सिमटकर रह गये हैं सावन के झूले
आधुनिक परम्परा की चकाचौंध में विलुप्त हो गई लोकगीत कजरी
संतोष शाह
रुद्रपुर (देवरिया)। प्रतीक्षा मिलन और विरह की अविरल सहेली, निर्मल और लज्जा से सजी-धजी नवयौवना की आसमान छूती खुशी, आदिकाल से कवियों की रचनाओं का श्रृंगार कर उन्हें जीवंत करने वाली लोकगीतो की रानी कजरी आधुनिक परंपरा की चकाचौंध में बिसरा दी गयी है। सावन शुरू होते ही पेड़ों की डाल पर पड़ने वाले झूले और महिलाओं द्बारा गाई जाने वाली कजरी अब आधुनिक परंपरा और जीवन शैली में विलुप्त सी हो गई है।
समय के साथ पेड़ गायब होते गए और बहुमंजिला इमारतों के बनने से आंगन का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया। ऐसे में सावन के झूले भी इतिहास बनकर हमारी परम्परा से गायब हो रहे हैं। अब सावन माह में झूले कुछ जगहों पर ही दिखाई देते हैं। सावन के आते ही गली-कूचों और बगीचों में मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोली के बीच युवतियां झूले का लुत्फ उठाया करती थीं। अब न तो पहले जैसे बगीचे रहे और न ही मोर की आवाज सुनाई देती है। यानी बिन झूला झूले ही सावन गुजर जाता है। गांव की बुजुर्ग महिलायें बताती हैं कि सावन के नजदीक आते ही बहन-बेटियां ससुराल से मायके बुला ली जाती थीं और पेड़ों पर झूला डाल कर झूलती थीं। झुंड के रूप में इक्ट्ठा होकर महिलाएं दर्जनों सावनी गीत गाया करती थीं। वह बताती हैं कि त्योहार में बेटियों को ससुराल से बुलाने की परम्परा आज भी चली आ रही है, लेकिन जगह के अभाव में न तो कोई झूला झूल पाता है और न ही अब मोर, पपीहा व कोयल की सुरीली आवाज ही सुनने को मिलती हैं। गांव की अधेड़ उम्र की महिलाओं की मानें तो दस साल पहले तक यहां रक्षाबंधन तक झूले का आनंद लिया जाता रहा है। गांव के पेड़ों में लोहे की जंजीरों से झूला डाला जाया करता था और सारे गांव की बहन-बेटियां झूलती थीं। झूला झूलने के खत्म हुए रिवाज के लिए गांवों में फैल रही वैमनस्यता भी जिम्मेदार है। नतीजतन, झूला झूलने की परम्परा को ग्रहण लग गया है।